तपश्चर्याएं

 

    सच्ची मनोवृत्ति न तो तपस्वी बनना है और न कामना में रस लेना है । सच्ची मनोवृत्ति है जो कुछ मैं दूं उसे पूरी सरलता के साथ लेना, उसके साथ पूरी तरह सन्तुष्ट रहना, न तो ज्यादा की मांग करना और न जो दिया गया है उसे अस्वीकार करना । देने लायक यही सच्चा उदाहरण है जो दूसरों को उनके साधक होने के कर्तव्यों को समझने में सहायता देगा ।

 

    मेरे बालक बने रहो, सरल, शान्त और सन्तुष्ट और सब कुछ ठीक होगा ।

५ अक्तूबर १९३४

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   जो संन्यासी मांगें करता है वह सच्चा और निष्कपट नहीं है । सच्चा होने के लिए संन्यासी को जो कुछ दिया जाये उससे पूरी तरह सन्तुष्ट रहना चाहिये ओर किसी चीज की मांग न करनी चाहिये । उसके साथ जो कुछ हो, उसमें उसे 'भागवत कृपा' देखनी चाहिये और उसके लिए प्रसन्न और साथ ही कृतज्ञ होना चाहिये ।

 

   और फिर जो ''तीव्र साधना'' करना चाहता है उसे अपने-आपको अपने परिवेश से अलग कर सकना चाहिये और अगर जरूरी हो तो युद्ध-क्षेत्र में, तोपों की गड़गड़ाहट के बीच भी गहरे ध्यान में बैठ सकना चाहिये ।

 

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    मैं नहीं मानती कि गुफा की साधना आसान हे-केवल, वहां कपट छिपा रहता है जब कि क्रियाकलाप और जीवन में वह प्रकट हो जाता है । तुम गुफा में योगी-से दीख सकते हो परन्तु जीवन में छल-कपट ज्यादा कठिन है क्योंकि तुम्हें योगी की तरह व्यवहार करना पड़ता है ।

६ सितम्बर, १९३५

 

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    मैं जब इस तरह की कड़ी साधना की गंभीरता के बारे में सोचता हूं

 

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    तो मेरे मन और शरीर की दुर्बलता का भाव मुझे डराने लगता है और मैं अपने अन्दर साहस नहीं पाता ।

 

हम एक बात जानना चाहते हैं कि तुम कितना खाते हो और नियमित रूप से एवं काफी सोते हो कि नहीं । ये दो बातें बहुत महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि इस प्रकार की साधना यह मांग करती है कि उसे सह सकने के लिए मन, शरीर और स्नायुमंडल को अल्पाहार या नींद की कमी के कारण दुर्बल न बनाया जाये ।

१६ दिसम्बर, १९४०

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     उपवास के द्वारा नहीं बल्कि संकल्पबल को बढ़ाकर तुम 'सत्य' को पा सकते हो ।

१८ जनवरी, १९५३

 

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     तुम कहते हो कि 'क' बच्चों के साथ ''शरारत करता है'' क्योंकि तुम सोचते हो कि साधना स्थिरता, अचंचलता और ध्यान है । लेकिन तुम यहां जितना अधिक रहोगे, उतना ही अधिक तुम्हें यह अनुभव करना होगा कि भागवत चेतना को केवल ध्यान द्वारा ही नहीं पाया जा सकता तुम यह सीखोगे कि खेलते समय, जिम्नास्टिक्स करते हुए, टहलते हुए या और कुछ करते हुए भी 'भगवान्' के साथ सम्पर्क बनाये रख सकते हो । तुम्हें हर क्षण 'भगवान्' को याद रखना और 'भागवत चेतना' में रहने का प्रयास करना चाहिये ।

३१ अगस्त, १९५३

 

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     यहां समझदारी अनिवार्य है और पूर्णयोग सन्तुलन, स्थिरता और शान्ति पर आधारित है । पीड़ा सहने की अस्वस्थ आवश्यकता पर नहीं ।

१२ मई १९६९

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    जब तक साधना तपश्चर्या है तब तक प्रतिक्रियाएं होती रहती हैं । जब यह एक अनिवार्य आवश्यकता बन जाती है, तब अच्छा रहता है ।

 

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(एकान्तवास के बारे में)

 

अगर यह सच्ची आवश्यकता है तो इसके साधन भी सहज रूप से जुट जायेंगे ।

३० मार्च, १९७०

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     क्या मैं कुछ  समय एकान्तवास में रहूं ?

 

योग की पुरानी पद्धतियां मौन और एकान्तवास की मांग करती हैं ।

 

     आगामी कल का योग कार्य करते हुए और संसार के साथ सम्बन्ध रखते हुए भगवान् को पाने में है ।

 

     अपने अन्दर देखो उस पर मनन करो और मुझे बतलाओ कि तुम क्या चुनते हो ।

२४ जनवरी, १९७१)

 

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      मेरे अनुभव के अनुसार तो जब लोग एकान्तवास करते हैं तो तमस् में जा गिरते हैं ।

अक्तूबर, १९७१

 

 

      बहुत ज्यादा अपने अन्दर रहने के लिए आन्तरिक जीवन की विशेष शक्ति की जरूरत होती है । ज्यादा अच्छा हो कि एकान्तवास को उसके किसी तरह के विरोधी रूप के साथ बदलते रहो । लेकिन इसके लाभ भी हैं और हानियां भी । केवल जागरूक रहने और आन्तरिक समस्थिति को

 

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बनाये रखने से तुम हानि से बच सकते हो ।

 

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पूर्ण शारीरिक निवृत्ति कभी-कदास ही लाभप्रद हो सकती है, यद्यपि अस्थायी निवृत्ति प्राय: सहायक होती है । लेकिन मुख्य चीज है आन्तरिक अनासक्ति और पूरी तरह भगवान् की ओर मुड़ना ।

 

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